धर्म की रक्षा का प्रश्न, परन्तु श्रेष्ठजन दमनचक्र: पं. मांगेराम शर्मा जी की कलम से (21 अप्रैल, 1988)
एक समय था, महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र, जमदग्नि और अंगिरा, गौतम और कण्व के आश्रमों से निकलती दिव्य ऋचाओं की ध्वनि आर्यों की उत्कृष्ट आत्मा को शब्दों में व्यक्त कर रही थी। इस भूमि में जो राजा लोक सत्ता भोगते थे वे चक्रवर्ती, जो तप करते थें वे ऋषि और जिन्होंने ऋचाओं का उच्चारण किया था वे मन्त्रदृष्टा प्रचलित प्रथाओं का स्तर ऊँचा करते थे। जो संस्कार प्रकट हुए वे सब धर्म – कर्म के मूल थे। इस आर्यवर्त में रहने वाले ऋषियों के कर्त्ता भी थे तथा पुरू और तृप्सु जाति के युद्ध में एक-दूसरे के सामने कभी-कभी भाग लेते थे। संस्कार और पवित्रता पर अपना वर्चस्व रखने वाले केवल मात्र वशिष्ठ मुनि ही थे।
विश्वामित्र के पिता गाघी जहन कुल के थे। एक बार उनके घर भृगु जाति के ऋचीक आए। ऋचीक ने हजार शयाम वर्ण के घोड़े गाघी को देकर प्रसन्न किया और उनकी पुत्री सरस्वती के साथ विवाह किया । जिन भृगुओं के नेता ऋचीक थे, वे अग्नि पूजक भी थे। वे मन्त्र-यन्त्र विद्या में कुशल माने जाते थे, अथर्ववेद पर उनका अधिकार था। गाघी के जमाता ऋचीक और सरस्वती से जमदग्नि उत्पन्न हुए। जमदग्नि और विश्वामित्र ने साथ ही जन्म लिया और साथ ही उनका लालन पालन हुआ।
इन भानजे और मामा ने आर्यवर्त के ऊंचे संस्कार प्राप्त किए। ऋग्वेद में एक ही ऋचा के संयुक्त मन्त्रदृष्टा जमदग्नि और विश्वामित्र दोनों ही है।
ऋचीक ऋषि के आत्मज जमदग्नि सात्त्विक वृत्ति के थे। पिता के देवलोक जाने पर जमदग्नि इक्ष्वाकु वंश की राजकन्या रेणुका के साथ विवाह करके निर्मल और सास्कृतिक जीवन बिताने लगे। इनके पाँच पुत्र हुए उनमें सबसे छोटे थे परशुराम। परशुराम का जन्म वैशाख शुक्ल तृतीय को हुआ था। सर्वशास्त्र सम्पन्न थे। उनकी नसों में जगद्विजयी अग्निपूर्वक भृगुओं का प्रतापी रुधिर बह रहा था। परशुराम ने विश्वामित्र और जमदग्नि को गोद में सरस्वती और दृष्व्दती तीर पर जीवन की सफलता प्राप्त की, जहाँ पर वाणी की शुध्दिके समान जीवन की संस्कारिता भी प्रिय समझी जाती थी। जहाँ साम्राज्यों के सिंहासन के सन्मुख ऋषित्व ऊँचा समझा जाता था और जहाँ आर्य संस्कारों की रक्षा जीवन की सफलता थी।
परशुराम महर्षि थे तथा उच्च संस्कृति के प्रतिनिधि भी थे और बली, भयंकर, दुर्जेय, प्रतापी और दृढ़ विजेता थे। आर्यों की कल्पनाशक्ति इस वीर जामदग्नेय से इतनी प्रभावित हुई कि अनेक गुण, लक्षण और पराक्रम के पर्यायवाची परशुराम बन गए। वह विश्वामित्र की बहन के पोते थे और इक्ष्वाकु राजा के दोहित्र। परशुराम ऋषि के रक्षक और अजेय सहस्त्रार्जुन के काल बने। उन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार राक्षसीवृत्ति के क्षत्रियों से विहीन किया और समस्त वसुन्धरा यज्ञ के समय दान में दे डाली।
धर्म की रक्षा के लिए प्रेरणास्त्रोत भगवान् परशुराम की पावन जयन्ती पर हरियाणा में विशेष धूम रहती है। उनका स्मरण कर यहाँ का ब्राह्मण वर्ग अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करता है। परन्तु क्या अपने प्ररेणास्त्रोत भगवान् परशुराम जैसा तेज और त्याग आज इनमें कहीं है? क्या आपने बच्चों में ऐसे संस्कार पल्लवित करते हैं जो उस ऋषिकुल परम्परा में हो? हम यज्ञ और अनुष्ठान भूल गए हैं। यज्ञोपवीत की तेजस्विता हमसे लुप्त हो गई है। हो भी क्यों न हम यज्ञोपवीत धारण ही नहीं करते। शनै: शनै: दूर भाग रहे हैं हम अपने तेजस्वी धार्मिक कृत्यों से।
हमारे नेता भगवान परशुराम का नाम लेकर राजनैतिक बाजार में हमारी भावनाओं का दोहन कर रहे हैं। कारण स्वयं उनमें तेजस्विता के संसकार नहीं हैं। मुझे ध्यान है कि रोहतक में एक ब्राह्मण नेता है जो जाति के नाम को तो भुनाते हैं, परन्तु जब-जब अवसर आया ब्राह्मण नेता है जो जाति के नाम को तो भुनाते हैं, परन्तु जब-जब अवसर आया ब्राह्मणों के हितों की रक्षा का तब-तब उन्होंने ब्राह्मण विरोधी कार्य किए हैं। ऐसे अनेक दलाल मिल जाएँगे जो संस्कारहीन होकर भी अपने स्वार्थ के लिए ब्राह्मणों के नाम पर अपनी रोटी सेंक रहे हैं। क्या जमदग्नि के ओजस पुत्र की जयन्ती पर हमें प्रण नहीं करना चाहिए कि श्रेष्ठजनों पर जो दमनचक्र चल रहा है हम उनकी रक्षा के लिए उसी तरह से आगे आएँ जैसे भगवान परशुराम आए थे। परंतु सत्ता के उन दलालों से सावधान रहने की आवश्यकता है जो ब्राह्मण का मुखौटा लगाकर ब्राह्मणों से ही ठगी रहे हैं। स्मरण रखिए हममें कुछ संस्कार शेष हैं चाहे कितने ही मिथ्या प्रचार बाण चलाएँ ये संस्कारहीन राक्षसीवृत्ति के लोग। परन्तु हमारा शाश्र्वत, निरन्तर उद्घोष भगवान परशुराम की तरह दिग् दिगन्त में उद्घोषित रहेगा।